साँझ

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संपादिका - अंकिता पंवार
सहसंपादक - सुधीर मौर्य 'सुधीर'































Thursday 3 May 2012

मई २०१२ अतीत से

 मई २०१२ अतीत   से,


शहरयार की ग़ज़ल

ये काफिले यादो के, कहीं खो गए होते
एक पल भी अगर भूल से हम सो गए होते

ऐ शहर तेरा-नाम-ओ-निशा भी नहीं होता
जो हादसे होने थे , अगर हो गए होते

हर बार पलटते हुए घर को, यही सोचा
ऐ काश, किसी लम्बे सफ़र को गए होते

हम कुश हे, हमे धुप, विरासत में मिली हे
अजदाद कही पेड़ भी कुछ बो गए होते

किस मुह से कहे तुझसे समुन्दर के हे हक़दार
सेराब, सराबो से भी हम हो गए होते

                                     शहरयार   




नज़्म

कांच की सुर्ख चूड़ी
मिरे हाथ में
आज ऐसे खनकने लगी
जैसे कल रात, शबनम से लिखी हुई
तेरे हाथ की शोखियों को
हवाओं ने सुर दे दिया हो

                             परवीन शाकिर 

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