साँझ

Sanjh, e-magzine

संपादिका - अंकिता पंवार
सहसंपादक - सुधीर मौर्य 'सुधीर'































Friday 1 June 2012

जून २०१२-कथासागर


Dr. Srimati Tara Singh

 “ यह कैसी श्रद्धांजलियह कैसा प्यार 

       हमारे पड़ोस में एक शख्स रहते हैंकाफ़ी पढ़े-लिखे हैं । अच्छे घराने से ताल्लुक भी रखते हैं । यदा – कदा उनसे मेरी मुलाकातें हो जाया करती है । उनके नाम का रुतबा कहिएया फ़िर पड़ोसी होने की वजहमुझे भी उनसे मिलकर अच्छा लगता है । यूँ तो उम्र में वे मुझसे १०-१२ साल बड़े होंगेलेकिन जब भी हमारी बातें होती हैतो कोई किसी से बड़ा-छोटा नहीं रहता है । हाँ ! एक बात का ख्याल दोनों तरफ़ से रहता है कि किसी भी हालात में एक दूसरे के व्जूद को धक्का नहीं पहुँचे ।

         एक दिन उन-होंने मुझसे कहा,’मेरे घर एक छोटीसी पूजा का आयोजन है । मैं दो रोज पहले ही तुमको बता दूँगा । जिससे ऑफ़िस से छुट्टी न मिलने का तुम्हारा वहाना नहीं रहेगा । मैंने कहा,’आप प्यार से बुलाएँ और मैं नहीं आऊँऐसा हो नहीं सकता । आप भरोसा रखिएमैं अवश्य आऊँगी । समय बीतता चला गया ; महीनेमहीने हो गए लेकिन उन-होंने पूजा में आने की बात नहीं की । एक दिन मैं ही हँसीमजाक में बोल गई,’ आपके घर कब आना है । रोज आलकल में बदल जाता है लेकिन आपका बुलावा आने का इंतजार कभी खत्म नहीं होता है । क्या बात है , पुजा का प्रोग्राम कैंसिल कर दिये क्या ? उन-होंने कहा,’ नहींनहींअसल में क्या हुआघर के लोग दो घंटे पहले प्रोग्राम बनाए और आननफ़ानन में अनुष्ठान करना पड़ा । तुमको खबर देने की मोहलत ही नहीं मिली ।मुझे माफ़ कर दो,अगली बार ऐसी गलती नहीं होगी ।’ मैंने कहा ,’ठीक हैमगर एक फ़ोन कर देने में तो सिर्फ़ एक मिनट चाहिए था । आप फ़ोन ही कर देते , मैं आ जाती । इस पर उन्होंने बार – बार क्षमा माँगी और कहा,’गलति तो मैंने सचमुच बहुत बड़ी कर डालीलेकिन तुम मुझे क्षमा कर दो’ । मैंने भी सोचा,’ आदमी बुरा नहीं हैअच्छा हैतभी तो छोटी – सी गलती के लिए बार – बार क्षमा माँग रहा है ।

     कुछ दिनों बाद उनके एक रिश्तेदार मेरे घर आए । उन्होंने बताया, ’मैं आपके पड़ोस में सुशील जी के घर एक आयोजन में गया हुआ था । आपको सुशील जी ���े रास्ते में मिलते – जुलते देखा,समझ गयाआप उनके दोस्त हैं । तो सोचा , दोस्त के दोस्त से मिलता चलूँ । कल वापस लौट जा रहा हूँ ।
मैंने पूछा,’ आपको मैंने कभी देखा नहींआप उनके घर कब से हैं ? उन्होंने कहा, ’यहीदश दिनों से । पूजा के चार दिन पहले ही आ गया था ।’ पूजा खत्म हुए छदिन बीत गयेअब लौट रहा हूँ । मैं आता नहींघर पर अभी काफ़ी व्यस्तता चल रही थी । लेकिन उनके बार – बार फ़ोन द्वारा आने की जिद मैं टाल नहीं सका ।’ सुनते ही मैं समझ गईपूजा का आयोजन आनन – फ़ानन में नहींबल्कि एक सोची-समझीतय की गई तिथि के अन्तर्गत ही सम्पन्न हुआ । सुशील जी , मुझे झूठ बोले कि बुरा नहीं मानिएआपको बुलाने का समय नहीं मिला ।

      जो भी होसुशील जी को मैं यह बताना ठीक नहीं समझी कि आप कितने झूठ का सहारा लेते हैं । वे अपनी मीठी बोली बोलकरकितनों को अपना मित्र बनाकरउनके अरमानों से खेलते हैं । मैं तो लगभग इस दुर्घटना को भूल चुकी थी । अचानक उन्होंनेपुनएक रोज रास्ते में मेरी हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ’मित्र ! अगले महीने छजुलाई को मेरी माँ का स्वर्गवास हुए ३० साल हो जायगा । मैं हर साल इस तिथि को माँ की श्रद्धांजलि के रूप में मनाता आया हूँ । मंत्री – संत्रीसभी रहेंगे । मैं चाहता हूँतुम उसमें आओ ।’ मैने सोचालगता है इस बार ये अपनी भूल को सु्धारेंगे । इसलिए तय की हुई तिथि भी हमें बता रहे हैं । मैंने कहा,’ठीक हैमैं अवश्य आऊँगी ।’ चार तारिख को मैंने उन्हें फ़िर फ़ोन किया । सोचा जान लूँकितने बजे आना है । फ़ोन पर उनकी पत्नी ने बताया, ’ महाशयघर पर नहीं हैं,वे बाहर गए हुए हैंदश रोज बाद लौटेंगे ।’ मैंने कहा,’वो अपनी माँ की श्रद्धांजलि का अनुष्ठान जो होना थाउसका क्या हुआ ?’ मैं बोली,’वह तो हो गया । उनके बाहर जाने के एक दिन पहले हीक्योंकि छ:जुलाई को उनकी दीदी के बेटे की शादी है । शादी की तिथि तो बदली नहीं जा सकतीइसलिए अम्मा की श्राद्धांजलि दो रोज पहले ही मना ली गई । मुझे बहुत दुख हुआ । समझ में नहीं आ रहा था कि यह शख्स जब सामने होता हैतब हरिश्चन्द्र की औलाद लगता हैलेकिन यह मिरजाफ़र से कम नहीं है ।
इससे बचकर हमें रहना होगापता नहींकब कौन सी मुसीबत इसके चलते खड़ी हो जाय ।

      अचानक एक दिन फ़िर मिले । मैं तो मुँह फ़ेरकर निकल भागने की कोशिश में थी कि उन्होंने मेरा रास्ता रोक लिया । कहा,’ तुम बहुत नाराज हो मुझसे ? होना भी चाहिएमैं बहुत धोखेबाज हूँ । क्या करूँनियति के आगे मेरा कुछ चलता नहीं और लोग समझते , मैंने ऐसा जानबूझ कर किया । तुम्हारे साथ एक बार नहींयह तो दूसरी बार हुई । मैं सामने खड़ा हूँमुझे जो चाहे , सजा दो । लेकिन मुझसे मुँह मत मोड़ो ।’ मेरा दिल पिघल गया । मैंने कहा, ’वो सब तो ठीक हैलेकिन आपके साथ कोई मजबूरी आ गई थीमुझे फ़ोन कर देते ।’ उन्होंने कहा,’ फ़ोन कहाँ से करतामेरा सेलफ़ोन तो चोरी हो गया है,उसमें तुम्हारा फ़��न नं० भी था ।’ तब मैंने पूछा, ’ सुशील जी ! पिछ्ले साल जो पूजा हुई थीउसमें आपके मित्र , तिवारी जी भी आये थे । उन्होंने कहा,’ हाँवे किसी काम से मेरे घर आए थे । संयोग देखिएउसी दिन मेरे घर पूजा थी ।’ मैंने कहा,’ नहीं सुशील साहब ! वो तो बता रहे थेआपने उन्हें १५ दिन पहले खत लिखाफ़ोन पर भी आने का बहुत आग्रह किया । तब जाकर कहीं वे आए । तो आप झूठ क्यों बोलते हैं ? अब तो उम्र हो रहीउस मालिक के पास जाने का । जवानी भर तो झूठ बोले , अब तो सच बोलिए ।
          तपाक से सुशील जी बोल उठे,’ मेरी माँमुझे बहुत प्यार करती थी । मुझे भी माँ से बहुत प्यार था । लेकिन मेरी झूठ बोलने की आदत से कभीकभी नाराज हो जाया करती थी । कहती थी,’ बेटातुम सच तो क्यों नहीं बोलते ? झूथ बोलनाअच्छा नहीं होता । झूठ बोलनेवाला इनसानहमेशा किसी न किसी मुसीबत में बना रहता है । अब तो अम्मा नहीं रहीमगर सपने में आज भी मुझसे मिलने आया करती है ।’ मैंने कहा,’आपको जब माँ से इतना प्यार हैतो उनके दिल की जो सबसे बड़ी ख्वाहि्श थीउसे पूरा क्यों नहीं करते ? माँ को आपकी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि आप सच बोलें । नहीं तोउनकी आत्मापुत्र की चिंता में भटकती रह जायगी ।
        सुनते ही उन्होंने कहा,’मैं दुनिया छॊड़ सकता हूँलेकिन झूठ बोलना नहीं छोड़ सकता क्योंकि जब तक झूठ बोलता रहूँगाअभी तक मेरी माँसच बोलने की जिद लेकर मुझसे मिलने मेरे सपनों में आती रहेगी । अगर मैंने सच बोलना शुरू कियातो माँ मेरी तरफ़ से निश्चिंत हो जायेगी । फ़िर कभी मिलने नहीं आयेगी । अब तुम्हीं बताओ कि मुझे सच बोलना चाहिए या झूठ । जब कि किसी भी कीमत पर मुझे माँ चाहिए । माँ को देखे बिनामैं भी जी नहीं सकूँगा ।’ उनके इस दर्द को मैं समझ पा रही थीक्या जवाब दूँ कि अनचाहे मुँह से निकल गया झूठ ।

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स्वरचित पुस्तकें प्रकाशित -- 24
काव्य संग्रह -- 18
(१) एक बूँद की प्यासी (२) सिसक रही दुनिया (३) हम पानी में भी खोजते रंग (४) एक पालकी चार कहार (५) साँझ भी हुई तो कितनी धुँधली (६) एक दीप जला लेना (७) रजनी में भी खिली रहूँ किस आस पर (८) अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख (९) यह जीवन प्रातः समीरण-सा लघु है प्रिये (१०) तम की धार पर डोलती जगती की नौका (११) विषाद नदी से उठ रही ध्वनि (१२) नदिया-स्नेह बूँद सिकता बनती (१३) यह जग केवल स्वप्न असार (१४) सिमट रही संध्या की लाली (१५) साँझ का सूरज (१६) तिमिरांचला (१७) दूतिका (१८) समर्पिता
गज़ल संग्रह ---4
(१) नगमें हैं मेरे दिल के (२) खिरमने गुल (३) बर्गे यासमन ( ४) हसरते गुल
कहानी संग्रह --- 1
(१) तृषा 
उपन्यास - 1
दूसरी औरत

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